क्या परमेश्वर की भक्ति करने के लिए झगड़ा करना उचित है?

परमेश्वर की भक्ति या भगवान की सेवा करने के नाम पर समय-समय पर कुछ असामाजिक तत्वों के लोग, मसीह लोगों के साथ मार पीट, झगड़ा और अन्याय तथा अत्याचार करते रहते हैं। उनको लगता है, कि ऐसा करके वे परमेश्वर की भक्ति या भगवान का काम कर रहे हैं। पर ऐसा नहीं है मेरे दोस्तों; क्योंकि पहले के जमाने के लोग परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए, न जानें कितनी, जप तप, उपवास, प्रार्थना करने के बाबजूद भी उनको भगवान का दर्शन नहीं मिलता था।

विश्वास का वचन

क्या परमेश्वर आपके साथ है?

जब कठोर तपस्या और भक्ति से भी परमेश्वर को प्रसन्न करना मुश्किल है, तो किसी को मारने पीटने से भगवान प्रसन्न हो सकता है क्या? बिल्कुल भी नहीं। किसी को कष्ट देना भगवान का सेवा नहीं है। और खास करके उन मसीह लोगों को जिन्होंने परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करते आ रहे हैं।

यहां पर मैं एक बात का स्मरण करा देना चाहता हूं, कि यदि मसीह लोग भी परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन नहीं कर रहे होते, तो शायद मसीह लोगों को सताने वालों को जवाब देने से कभी भी पीछे न हटते। परन्तु मसीह लोग परमेश्वर की भक्ति, शिक्षा और आज्ञाओं का पालन सच्चाई से कर रहे हैं, और आगे भी सच्चे मन से और निडर होकर परमेश्वर की भक्ति करते रहेंगे।

इसलिए मसीह लोग गाली के बदले गाली और थप्पड़ के बदले थप्पड़ नहीं देते हैं। क्योंकि 1 Peter 3:9 की वचन में इस प्रकार लिखा है, कि बुराई के बदले बुराई मत करो; और न गाली के बदले गाली दो; पर इस के विपरीत आशीष ही दो: क्योंकि तुम आशीष के वारिस होने के लिये बुलाए गए हो।

इसका मतलब परमेश्वर भी यह नहीं चाहता कि कोई भी व्यक्ति किसी को गाली दे या किसी भी प्रकार कि झगड़े में लिप्त रहे। इसलिए परमेश्वर की भक्ति किसी के साथ झगड़े करके, किसी को गाली और कष्ट देकर नहीं कि जा सकती है, बल्कि प्रेम से, सच्चे मन से, निष्पाप और पवित्रता के साथ परमेश्वर की भक्ति करना चाहिए।

परमेश्वर की भक्ति और प्रेम

देखिए ,परमेश्वर की भक्ति करने के लिए झगड़ा करना उचित नहीं है। क्योंकि बाइबल में (1 कोरिन्थियों 16:14) की इस आयत में लिखा है, “जो कुछ करते हो सब प्रेम से करो” । अर्थात भक्ति और प्रेम के माध्यम से ही हम परमेश्वर के करीब आ सकते हैं, इसके अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। जरा सोचिए, यदि परमेश्वर कहता कि सारी सृष्टि के लोग मेरे आगे झुक जाएं, अन्यथा न झुकने वालों को कड़ी से कड़ी दंड और असहनीय मृत्यु दी जाएगी।

तो बताइए इतनी औकात किसके पास है, जो परमेश्वर की आज्ञाओं का उलंघन कर सके। देखिए, परमेश्वर के पास ऐसा करने का शक्ति और अधिकार भी है। परन्तु उसने ऐसा नहीं किया, बल्कि असीम शक्ति और सामर्थ्य होते हुए भी, वह शक्तिहीन की तरह सबको प्रेम किया और लोगों को भी भक्ति, प्रेम और भाईचारे का रास्ता चुनने का विकल्प दिया। इसलिए हम सबको भी परमेश्वर की भक्ति और प्रेम के बारे में समझना चाहिए।

बाइबल में प्रेम की शिक्षा

तो आगे हम बाइबल में कुछ आयतों में परमेश्वर की भक्ति, प्रेम और एकजुटता के महत्व का वर्णन के बारे में देखते हैं:

1. John 13:34-35 की वचन यह कहता है, मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूं, कि एक दूसरे से प्रेम रखो: जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दुसरे से प्रेम रखो। यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो।

इस वचन में, प्रभु यीशु अपने अनुयायियों को एक महत्वपूर्ण संदेश दे रहे हैं। वह कहते हैं, कि प्रेम के माध्यम से ही हम उनके अनुयायी और उनके शिष्य हो सकते हैं। यह प्रेम सबके बीच में एक परिचय का रूप होना चाहिए, और इससे यह साबित हो सकता है कि वे यीशु के अनुसरण कर रहे हैं। क्योंकि यीशु ही प्रेम हैं। इसलिए हम मनुष्य को भी भाईचारा और मेल-मिलाप का जीवन जीना चाहिए।

2. फिलिप्पियों 2:2-3 कहता है, तो मेरा यह आनन्द पूरा करो कि एक मन रहो और एक ही प्रेम, एक ही चित्त, और एक ही मनसा रखो। विरोध या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो।

अर्थात सभी लोगों को परमेश्वर और एक दूसरे की इच्छाओं का ख्याल रखना चाहिए, और ऐसा कोई भी काम, किसी भी प्रकार का झगड़े या घमंड नहीं करना चाहिए, बरना गलत निर्णय के कारण किसी मासूम के लिए हानिकारक हो सकता है।”इस भाग में, प्रेरित पौलुस फिलिप्पी के लोगों को सलाह देते हैं कि वे एक एक मन और एक जैसी सोच रखें।

वे प्यार, करुणा और दया के साथ एक दूसरे के प्रति प्रेम दिखाएं। यह सिखाता है कि समर्पण और समझदारी एकदूसरे के साथ अच्छे रिश्तों का निर्माण करता है। भाईचारा और मेल-मिलाप का विचार के माध्यम से, बाइबल उन्हें उपयोगी दिशानिर्देश देती है कि कैसे एक साथ रहने और काम करने के दौरान धार्मिकता और सद्गुणों का पालन किया जा सकता है।

3. कुलुस्सियों 3:12-14 कहता है, इसलिये परमेश्वर के चुने हुओं की नाईं जो पवित्र और प्रिय हैं, बड़ी करूणा, और भलाई, और दीनता, और नम्रता, और सहनशीलता धारण करो। और यदि किसी को किसी पर दोष देने को कोई कारण हो, तो एक दूसरे की सह लो, और एक दूसरे के अपराध क्षमा करो: जैसे प्रभु ने तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी करो। और इन सब के ऊपर प्रेम को जो सिद्धता का कटिबन्ध है बान्ध लो।

परमेश्वर की भक्ति

इस वचन के अनुसार समझने वाली बात यह है, कि परमेश्वर गड़बड़ी या झगड़े को पसन्द नहीं करता है, और उनके चुने हुए लोग भी किसी भी प्रकार कि गड़बड़ी और झगड़े नहीं करना चाहते हैं और इसी तरह सबको भी किसी भी झगड़े और मतभेद से दूर रहना चाहिए।

एक बेहद जरूरी बात यह है, कि यदि किसी के साथ मतभेद या दोष लगाने का विषय है, तो प्रेम के साथ सह लेना चाहिए, और जैसे प्रभु ने हमारे अपराधों को क्षमा किया है, वैसे ही हम लोगों को भी एक दूसरे का अपराध क्षमा करते हुए, प्रेम का परिचय देना चाहिए। क्योंकि प्रेम ही परमेश्वर की भक्ति है, और प्रेम से बड़ा कोई नहीं है।

4. याकूब 1:19-20 हे मेरे प्रिय भाइयो, यह बात तुम जानते हो: इसलिये हर एक मनुष्य सुनने के लिये तत्पर और बोलने में धीरा और क्रोध में धीमा हो। क्योंकि मनुष्य का क्रोध परमेश्वर के धर्म का निर्वाह नहीं कर सकता है।

देखिए दोस्तों, परमेश्वर ने हमें इसलिए नहीं बनाया, की हम दुसरे को कष्ट दें। बल्कि इसलिए हमें बताया है, ताकि हम दूसरों की भलाई कर सकें और परमेश्वर की सृष्टि के कार्य में सहयोग प्रदान करें।

इसलिए, हमें बुरे नहीं, बल्कि अच्छे और सच्चे बातों को सुनने की तत्परता दिखानी चाहिए, और इसके साथ साथ धीरे बोलना और अपने क्रोध को कम करना भी जरूरी बात बन जाता है। क्योंकि मनुष्य का क्रोध परमेश्वर की धर्म के कामों को नहीं कर सकता है। इसलिए परमेश्वर की भक्ति करने के लिए अपने आप में नम्रता बनाए रखना बेहद जरूरी है।

5. रोमियों 12:16-17 कहता है, आपस में एक सा मन रखो; अभिमानी न हो; परन्तु दीनों के साथ संगति रखो; अपनी दृष्टि में बुद्धिमान न हो। बुराई के बदले किसी से बुराई न करो; जो बातें सब लोगों के निकट भली हैं, उन की चिन्ता किया करो।

अर्थात “आपस में एक सा मन रखो” – इसका मतलब आपसी मतभेद और बैर भाव नहीं रखना चाहिए। बल्कि व्यक्तिगत संबंधों में सद्भावना और सहयोग बनाए रखनी चाहिए।”अभिमानी न हो” – यह बताता है कि अपने आप में घमंड नहीं करना चाहिए, बल्कि हमें विनम्र और आदर्शवादी बन कर रहना चाहिए।”परन्तु दीनों के साथ संगति रखो” – यह दिखाता है कि हमें कमजोर और दीन-हीन व्यक्तियों के साथ दया और सहानुभूति बनाए रखना चाहिए।

“अपनी दृष्टि में बुद्धिमान न हो” – यह बताता है कि अपने आप को बहुत बुद्धिमान मानने की जरूरत नहीं है, बल्कि विनम्रता और समझदारी के साथ चलने की आवश्यकता है।”बुराई के बदले किसी से बुराई न करो” – यह सिखाता है कि बुराई का प्रतिशोध लेने के बजाय, हमें प्रेम और सद्गुणों के माध्यम से प्रतिक्रिया देनी चाहिए।

“जो बातें सब लोगों के निकट भली हैं, उन की चिन्ता किया करो” – यह बताता है कि हमें उन बातों पर ध्यान देना चाहिए जो सभी के लिए उपयुक्त और भले होते हैं, और हमें उन्हें अपने व्यवहार में अंतर्निहित करने की कोशिश करनी चाहिए। इन वाक्यों का संक्षिप्त अर्थ यह है कि हमें दूसरों के साथ शान्ति ,सहयोगी और सद्भावनापूर्ण का व्यवहार रखनी चाहिए, लोगों के दुःखों में सहानुभूति दिखानी चाहिए, विनम्रता और समझदारी के साथ आचरण करना चाहिए, और बुराई के प्रति उचित रीति से प्रतिक्रिया देनी चाहिए।

6. इब्रानियों 12:14 कहता है, सब से मेल मिलाप रखने, और उस पवित्रता के खोजी हो जिस के बिना कोई प्रभु को कदापि न देखेगा। अर्थात हर तरह के मनुष्यों से मिलकर शांति के साथ जीने की कोशिश करना चाहिए, और हर प्रकार के पापों को त्याग कर पवित्रता की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए, जो बिना पवित्रता के भगवान को प्राप्त करना मुश्किल है।

7. तितुस 3:2 कहता है, किसी को बदनाम न करें; झगडालू न हों: पर कोमल स्वभाव के हों, और सब मनुष्यों के साथ बड़ी नम्रता के साथ रहें। अर्थात किसी से झगड़ा न करें और न ही झगड़ा करने की शिक्षा दें, बल्कि विनम्रता दिखाएं, और सभी मनुष्यों के साथ अच्छा व्यवहार करें।”

8. मत्ती 5:9 कहता है, धन्य हैं वे, जो मेल करवाने वाले हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलाएंगे। ये आयतें दिखाती हैं कि परमेश्वर की भक्ति में एकजुटता, प्रेम, नम्रता, और शांति की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसलिए हर मनुष्य एक दूसरे के प्रति भाईचारा और मेल मिलाप का व्यवहार करना चाहिए। इससे परमेश्वर को प्रसन्नता मिलेगी, और अच्छे मार्ग पर चलने वाले लोग परमेश्वर की पुत्र पुत्रियां कहलाएंगे।

निष्कर्ष

दोस्तों, अन्त में मैं यही कहूंगा कि, आज जिस मानव समाज खुद को शिक्षित और बुद्धिमान मानता है, यदि उसकी शिक्षा और बुद्धिमानी का काम दूसरों को कष्ट देता है, तो इससे बड़ी दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकता है? इसलिए कहीं भी और कभी भी यदि जीवन में कुछ ऐसा कदम उठाना पड़े तो उसके परिणाम के बारे में सौ बार सोच लेना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि एक ग़लत कदम के कारण दूसरे का जीवन बर्बाद न हो जाए।

और रही परमेश्वर की भक्ति करने की बात तो दूसरों को कष्ट दे कर नहीं, बल्कि प्रेम और भाईचारे के साथ हमेशा सत्य के पीछे चलने की कोशिश करते रहें। और एक बात यदि परमेश्वर का वचन आपको अच्छा लगे तो कमेंट जरुर करें। शांति का परमेश्वर आपके साथ हमेशा रहते हुए, सत्य के मार्ग पर चलने की कृपा करते रहे। आपका दिन शुभ और मंगलमय हो। धन्यवाद।।

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